आधुनिक भारतीय इतिहास के देशी स्रोत - Indigenous sources of modern Indian History

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आधुनिक भारतीय इतिहास के देशी स्रोत पर प्रकाश डालें । ( Throw light on the indigenous sources of modern Indian history in Hindi )


उत्तर-  आधुनिक भारतीय इतिहास के देशी स्रोत : - 
जहाँ सरकारी एवं गैर-सरकारी औपनिवेशिक स्रोत सामग्री भारत में ब्रिटिश नीतियों, औपनिवेशिक विचारधाराओं, शासकों की निजी सोच आदि के अध्ययन के लिये महत्वपूर्ण है वहीं भारतीय स्रोत सामग्री से उपनिवेशवाद के प्रति भारतीय प्रतिक्रिया का पता चलता है. निश्चित ही यह प्रतिक्रिया एक तरह की नही थी. भारतीयों के एक वर्ग ने ब्रिटिश शासन का स्वागत किया, क्योंकि उनका मानना था कि आधुनिक पश्चिमी सभ्यता अधिक विकसित एवं प्रगतिशील है. एक अन्य वर्ग, जो कहीं अधिक जागरूक था, ने पश्चिमी सभ्यता का अन्धानुकरण नहीं किया, वरन तर्क एवं बुद्धि के आधार पर इसका विश्लेषण किया. इस वर्ग का भारतीय सभ्यता, संस्कृति एवं अतीत में भी विश्वास था. अत: इन्होंने पूर्व एवं पश्चिम के विलय से आधुनिक भारतीय सभ्यता के विकास की वकालत की. तीसरे वर्ग में हम उन भारतीयों को रख सकते हैं जिन्होंने आधुनिक सभ्यता का विरोध किया. ये तीनों ही विचारधाराएँ विभिन्न विद्रोहों एवं आन्दोलनों में देखी जा सकती हैं. आगे हम भारतीय प्रतिक्रिया से सम्बन्धित सामग्री का विश्लेषण करेंगे.

aadhunik bhaarateey itihaas ke deshee srot

1. भारतीय पुनर्जागरण के स्रोत (Sources of Indian Renaissance) - 
भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना भारत में आधुनिक सभ्यता का आरम्भ भी था. अत: भारतीयों के एक वर्ग ने पुरानी पड़ चुकी और सड़ी-गली मान्यताओं को त्यागने के लिये आन्दोलन किये. इसका अर्थ यह कदापि नही था कि भारतीयों ने आधुनिकता को उसी रूप मे स्वीकार कर लिया जैसे यूरोप में उसका विकास हुआ था. तथापि भारतीय पुनर्जागरण के वाहकों ने प्राचीन भारतीय सभ्यता के साथ-साथ आधुनिक पश्चिमी सभ्यता का मूल्यांकन किया. अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिये इन भारतीयों ने अनेक संगठनों की स्थापना की. इन संगठनों की प्रत्येक कार्यवाही को लिखित रूप से रखा जाता था. 
            हमें ब्रहम समाज, देव समाज, प्रार्थना समाज आदि संगठनों के लिखित दस्तावेज़ उपलब्ध हैं. इन संगठनों एवं इनके नेताओं ने अपनी मांगों को लेकर ब्रिटिश सरकार को मांगपत्र अथवा ज्ञापन दिये. भारतीय पुनर्जागरण के नेता अपने विचारों एवं मांगों को प्रचारित करने के लिये पत्र-पत्रिकाएँ भी निकालते थे. उदाहरणस्वरूप राममोहनराय ने अपने विचारों के प्रसार के लिये मिरात-उल-अख़बार एवं संवाद कौमुदी नामक पत्र निकाले. इसप्रकार भारतीय पुनर्जागरण के सम्बन्ध में हमें व्यापक सामग्री मिलती है.

2. विद्रोहों, किसान आन्दोलनों एवं जनजाति संघर्षों से संबन्धित सामग्री - 
भारत में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना के आरम्भ से ही भारतीयों ने उपनिवेशवाद का विरोध करना आरम्भ कर दिया. ब्रिटिश विरोधी आरम्भिक संघर्षों में किसान आन्दोलनों, जनजातियों के संघर्षों के अलावा संगठित एवं गैर-संगठित विद्रोहों को रखा जाता है. इसप्रकार का पहला ब्रिटिश विरोधी संघर्ष बंगाल का सन्यासी विद्रोह या फ़कीर आन्दोलन था. यह संभवत: असंगठित विद्रोह था. संगठित विद्रोह में हम वहाबी आन्दोलन को रख सकते हैं, जिसका उद्देश्य भारत में एक मुस्लिमराज की स्थापना करना था. फिर भी इन आन्दोलनों को संगठित एवं गैर संगठित जैसी श्रेणीयों में विभाजित करना त्रुटिपूर्ण हो सकता है क्योंकि इस प्रकार के अधिकांश विद्रोहों के लिखित दस्तावेज़ या तो नही मिलते या अति अल्प हैं. 
ऐसी समस्या का सामना इतिहासकारों को इस प्रकार के सबसे व्यापक विद्रोह यथा- 1857 के विद्रोह में भी करना पड़ता है. फिर भी इतिहासकारों ने इन विद्रोहों के अध्ययन के लिये नवीन सामग्रियाँ खोज निकाली हैं. भले ही सरकार की भाषा (अंग्रेज़ी) में विद्रोहों के सम्बन्ध में व्यापक जानकारी न मिले, क्षेत्रीय भाषाओं एवं दूसरी जनभाषाओं में विद्रोह के वर्णन भरे पड़े हैं. विशेषकर 1857 पर व्यापक एवं

        नवीन जानकारी उर्दू के स्रोतों से पता चली है. 1857 का विद्रोह निश्चित ही ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरुद्ध व्यापक जनचेतना का परिणाम था. यह जनचेतना लोक गीतों एवं लोक स्मृतियों में अभिव्यक्त हुई. इन लोकगीतों एवं लोकस्मृतियों के कुछ प्रमाण हमें आज भी उन इलाकों की बोलियों एवं भाषाओं में मिल जाते हैं, जिनका अध्ययनकर इन विद्रोहों में शामिल लोगों तथा इससे सहानुभूति रखने वालों की चेतना एवं मानसिकता का अध्ययन किया जा सकता है.

        ऊपर हमनें विद्रोहों के दस्तावेज़ों की कमी के सम्बन्ध में जिस समस्या की चर्चा की है, वही समस्या कही व्यापक रूप से किसान एवं जनजाति आन्दोलनों के सन्दर्भ में सामने आती है. किसान और जनजाति आन्दोलन के नेता या इसमें भाग लेने वाले पढ़े-लिखे नहीं थे. अत: इन आन्दोलनों के सम्बन्ध में क्षेत्रीय भाषा साहित्य भी मौन है. अतः इन आन्दोलनों के अध्ययन का एकमात्र साधन सरकारी स्रोत ही रहे हैं जो अक्सर विद्रोहियों के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि ही रखतें हैं. लोकगीतों एवं लोकस्मृतियों के अध्ययन से भी इन आन्दोलनों के बारे में बहुत कम जानकारी ही मिल पाती है. ऐसे में इतिहासकारों के एक वर्ग (सबअल्टर्न इतिहासकार) ने एक नया तरीका निकाला है. उन्होंने सरकारी स्रोतों के पुनराध्ययन एवं पुनर्व्याख्या को किसान एवं जनजाति आन्दोलनों के अध्ययन का माध्यम बनाया है. इस लेखन से कुछ उत्कृष्ट अध्ययन तो सामने आये हैं परंतु इन तरीकों को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है.

3. राष्ट्रीय आन्दोलन के दस्तावेज़ (National Movement Documents) - 
भारत में राष्ट्रवाद का उदय आधुनिक चेतना तथा उपनिवेशवाद विरोधी भावना के प्रसार का सम्मिलित प्रभाव था. राष्ट्रवाद की राष्ट्रीय स्तर पर अभिव्यक्ति के रूप में 1885 ई. में कांग्रेस की स्थापना हुई. हलांकि इससे पूर्व ही कुछ संगठन आधुनिक राष्ट्रवाद की विचारधारा से प्रभावित होकर स्थापित किये गये थे, जिनमें दादाभाई नौरोजी द्वारा लन्दन में स्थापित ईस्ट इंडिया एसोसिएशन तथा सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी द्वारा कलकत्ता में स्थापित इंडियन एसोसिएशन प्रमुख थीं. अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस प्रतिवर्ष दिसम्बर माह में अपना वार्षिक अधिवेशन करती थी. इस अधिवेशन में विभिन्न प्रस्ताव पास किये जाते थे तथा सरकार को प्रत्यावेदन भेजे जाते थे. कालांतर में कांग्रेस ने आन्दोलन करना आरम्भ किया, तो आन्दोलनों से सम्बन्धित सभी निर्णय व्यापक विचार-विमर्श के पश्चात ही लिये जाते थे. इन सभी बहसों एवं निर्णयों को लिपिबद्ध किया गया था. अत: राष्ट्रीय आन्दोलन से सम्बन्धित व्यापक दस्तावेज़ इतिहास लेखन के लिये मौजूद हैं. 

        अखिल भारतीय कांग्रेस के अलावा दूसरे दल भी थे, जो राष्ट्रीय आन्दोलन में या तो भाग ले रहे थे या अंग्रेज़ों के पिट्ठू थे. इनमें मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा तथा अकाली दल आदि महत्वपूर्ण थे. इनमें से अधिकांश दलों की गतिविधियों के बारे में लिखित दस्तावेज़ उपलब्ध हैं. फिर भी कई संगठन गैर-कानूनी ढंग से अपनी गतिविधियाँ चलाते थे. इनमें मुख्यत: क्रांतिकारी संगठन एवं वामपंथी दल थे. हलांकि इन संगठनों में भी राष्ट्रवादी कार्यवाहियों के निर्णय व्यापक बहस एवं चर्चा के पश्चात ही लिये जाते थे. परंतु गैर-कानूनी होने के कारण ये संगठन अक्सर अपने दस्तावेज़ों को नष्ट कर दिया करते थे. इन संगठनों का इतिहास जानने के स्रोत या तो इनके बचे-खुचे दस्तावेज़ या सरकारी रिपोर्टें हैं, जिनसे इन संगठनों की गतिविधियों के बारे में ज्ञात होता है. 

        राष्ट्रीय आन्दोलन एक अत्यंत व्यापक आन्दोलन था, अतैव इसमें काफी बड़ी संख्या में भारतीय जनता के प्रतिनिधियों ने भाग लिया. इनमें से अनेक ने अपने लेख, दस्तावेज़ तथा पत्र छोड़े हैं. उदाहरणस्वरूप केवल महात्मा गाँधी के लेखों एवं भाषणों को संकलित कर 100 खण्डों में छापा गया है. इसे कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गाँधी के नाम से प्रकाशित किया गया है. हिन्दी में इसके संक्षिप्त भाग को गाँधी वाग्मय के नाम से प्रकाशित किया जा चुका है. इसके अलावा सरदार पटेल एवं भीमराव अम्बेडकर के लेखों एवं उनसे सम्बन्धित सामग्री को भी छापा जा चुका है. राष्ट्रीय नेताओं के अलावा राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़े अनेक क्षेत्रीय नेताओं के लेख एवं रचनाएँ भी इतिहासकारों के अध्ययन के लिये उपलब्ध हैं. अनेक प्रांतीय एवं स्थानीय अभिलेखागारों में राष्ट्रीय आन्दोलन से सम्बन्धित जानकारी के असंख्य दस्तावेज़ भरे पड़े हैं.
 
        राष्ट्रवाद से सम्बन्धित संगठनों एवं नेताओं से सम्बन्धित सामग्री से हमें नेताओं एवं संगठनों की गतिविधियों, नीतियों एवं विचारधाराओं के बारे में तो जानकारी मिलती है, परंतु उन असंख्य लोगों के बारे में, जिन्होंने इस आन्दोलन में भाग लिया था, अधिक पता नही चलता. हाल में सब अल्टर्न इतिहासकारों में राष्ट्रवाद से संबन्धित ऐसे सारे अध्ययनों की आलोचना हुए इसे इलीट इतिहास कहा है जिससे निम्न वर्ग (सबअल्टर्न) की चेतनाओं एवं आन्दोलन में उनकी भागीदारी के बारे में कुछ पता नहीं चलता है. इन इतिहासकारों ने निम्न वर्गों का इतिहास लिखने का दावा तो किया है परंतु अब तक वे इन वर्गों से सम्बन्धित नये स्रोत नहीं ढूँढ पाये हैं और उन्होंने पुराने स्रोतों की नवीन व्याख्या ही की है.

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