भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में सुभाषचंद्र बोस के योगदान पर प्रकाश डालें । ( Throw light on the contribution of Subhas Chandra Bose in the Indian National Movement.)
उत्तर- सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी , 1897 को कटक में हुआ था । उनकी शिक्षा - दीक्षा का उत्तम प्रबंध किया गया । वे आई ० सी ० एस ० की परीक्षा में भाग लेने के लिए इंग्लैंड गए । परीक्षा में उन्हें सफलता मिली , लेकिन इससे उनमें कोई खुशी न हुई । वे देश सेवा को अपना परम कर्तव्य समझते थे । अतः उन्होनें 1921 में त्याग पत्र दे दिया । उन्होंने गाँधीजी से भेंट की ; किन्तु उनका कार्यक्रम उन्हें अच्छा नहीं लगा । इसके बाद वे देशबंधु चितरंजन दास से मिले । उनके विचार से वे काफी प्रभावित हुए और उनके अनन्य भक्त तथा सहयोगी बए गए । 1921 में सुभाष बाबू देशबंधु द्वारा स्थापित राष्ट्रीय कॉलेज के प्राचार्य नियुक्त हुए । उन्हें महात्मा गाँधीजी द्वारा संचालित आन्दोलन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक दल का कमाण्डर बनाया गया । प्रिंस ऑफ वेल्स के बहिष्कार आंदोलन में भाग लेने पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया । 1923 में स्वराज्य पार्टी की स्थापना हुई । उन्होंने इसके सिद्धांतों दल का कमाण्डर बनाया गया । प्रिंस ऑफ वेल्स के बहिष्कार आंदोलन में भाग लेने पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया । 1923 में स्वराज्य पार्टी की स्थापना हुई । उन्होंने इसके सिद्धांतों का खुलकर संचार किया । कलकत्ता निगम में दल की विजय के बाद वे कार्यपालिका पदाधिकारी के पद पर नियुक्त हुए । 1925 में बंगाल अराजक आदेश के अंतर्गत उन्होंने मंडाले जेल भेज दिया गया । जेल से मुक्त होने बाद वे रचनात्मक कार्यों में जुट गए । खादी का प्रचार , छात्र युवकों संघ का गठन , राष्ट्रीय शिक्षण संस्थाओं की स्थापना , आदि उनके कार्यक्रम बन गए । नेहरू रिपोर्ट के विरुद्ध उन्होंने एक छात्र पार्टी बनाई जिसका नाम ' स्वतंत्र संघ ' रखा गया । उन्होंने साइमन कमीशन के बहिष्कार आंदोलन में भाग लिया और गिरफ्तार कर लिए गए । उन्होंने गाँधीजी -इरविन समझौता का कठोर विरोध किया । कराची अधिवेशन में उन्होंने गाँधीजी की नीति की तीव्र आलोचना की । 1931 में गाँधीजी के द्वितीय गोलमेज सम्मेलन से लौटने के बाद पुनः सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हुआ । सुभाष बाबू पुनः गिरफ्तार कर लिए गए । इसके पश्चात् वे इलाज कराने के लिए यूरोप गए । वहाँ उन्होंने एक वक्तव्य में कहा , " राजनीतिक नेता के रूप में महात्मा गाँधीजी असफल रहे हैं और काँग्रेस को नए सिरे से संगठित करना चाहिए । यदि ऐसा न हुआ तो एक नया दल स्थापित करना पड़ेगा । " 1939 में गाँधीजी से उनका मतभेद अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया । गाँधीजी के विरोध के बावजूद वे काँग्रेस के अध्यक्ष चुने गए । इस अवसर पर गाँधीजी ने कहा , " पट्टाभि की पराजय मेरी पराजय है । " अंत में सुभाष बाबू को त्याग पत्र देना पड़ा । उन्होंने एक नए दल की संगठन की जिसे ' फारवर्ड ब्लॉक ( Foward Block ) ' कहते हैं ।
2 जुलाई , 1940 को भारत सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत सुभाषचंद्र बोस को गिरफ्तार कर कलकत्ता के प्रेसीडेंसी जेल में बंद कर दिया । निरंतर अस्वस्थता के कारण उन्हें 5 दिसम्बर को छोड़ दिया गया । 17 जनवरी , 1941 को कलकत्ता स्थित अपने मकान से रात में वह चुपके से निकल गए और कार से गोमो पहुँचे । वहाँ रेलगाड़ी से वे पेशावर चल पड़े । वहाँ से इटालियन पासपोर्ट लेकर वह रूस गए और 28 मार्च , 1941 को विमान द्वारा मास्को से बर्लिन पहुँचे । हिटलर के सहयोगी रिबेन टाप ने उनका स्वागत किया । बोस ने प्रस्ताव रखा कि वे बर्लिन रेडियो से ब्रिटिश - विरोधी प्रचार करेंगे , जर्मनी में भारतीय युद्ध बंदियों में से लोगों को चुनकर आजाद हिन्दी सेना बनाएँगे तथा केंद्रीय राष्ट्र ( जर्मनी , इटली एवं जापान ) भारतीय स्वाधीनता की संयुक्त घोषणा करेंगे । बोस के प्रथम दो प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया गया । जनवरी , 1942 तक भारतीय सैनिकों के दो दस्ते बनाए गए । जर्मनी में सुभाष की उपस्थिति पहले गुप्त रखी गई , लेकिन 1942 के आरंभ तक यह बात जाहिर हो गई । जर्मनी में ही उनके नाम के आगे ' नेताजी ' शब्द जोड़ा गया ।
नेताजी ने रोम और पेरिस में भी आजाद भारत केन्द्र ( Free India Centre ) कायम किए । उन्होंने भारतीयों की जो सेना खड़ी की , उसके सैनिकों की संख्या तीस हजार तक हो गई । इसी बीच 15 फरवरी , 1942 को जापानियों को सिंगापुर पर भी कब्जा हो गया जहाँ हजार भारतीय युद्धबंदी बनाए गए । जापानी फौजी अफसर मेजर फूजीहारा ने उन्हें कप्तान मोहन सिंह को सुपुर्द कर दिया । इन युद्धबंदियों में से भारतीय सैनिकों को लेकर मोहन सिंह ने आजाद हिन्दी फौज ( Indan National Army ) खड़ी की । दक्षिण - पूर्व एशिया के अनेक नौजवान भारतीय स्वतंत्रता के लिए लड़ने के लिए इस फौज में भर्ती हुए । उनके प्रशिक्षण के लिए अनेक सैनिक शिविर खोले गए । 1 सितंबर , 1942 को आजाद हिन्द फौज की विधिवत् स्थापना कर दी गई ।
13 जून , 1943 को सुभाष टोकिया पहुँचे । वहाँ के प्रधानमंत्री तोजो ने उनका बड़ा स्वागत किया । तोर्जा ने जापानी संसद में घोषणा की , " जापान ने दृढ़ता के साथ फैसला किया है कि वह भारत से अंग्रेजों को निकाल बाहर करने और उनके प्रभाव को नष्ट करने के लिए सब तरह की मदद देगा तथा भारत को पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करने में समर्थ बनाएगा । " सुभाष ने टोकियो रेडियो पर बोलते हुए ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सशस्त्र संग्राम में दृढ़ निश्चय और पूर्वी सीमा से आक्रमण करने की घोषणा की । 2 जुलाई , 1943 को वे सिंगापुर पहुँचे जहाँ उनका शानदार स्वागत किया गया । उन्हें भारतीय स्वतंत्रता संघ ( Indian Independence League ) का अध्यक्ष बनाया गया । सिंगापुर में उन्होंने स्वतंत्र भारत की स्थायी सरकार बनाने और आजाद हिन्द फौज को लेकर भारत जाने की घोषणा की । आजाद हिन्दी फौज के पुनर्निमार्ण की घोषणा कर दी गई । सुभाष ने उसका निरीक्षण किया और नारा बुलंद किया , ' चलो दिल्ली । 25 अगस्त , 1943 को सुभाष खुद फौज के सेनापति बने । उन्होंने इसके संगठन और प्रशिक्षण पर जोर दिया । प्रवासी भारतीय युवतियों को लेकर झाँसी की रानी रेजीमेंट बनाई गई ।
आजाद हिन्दी फौज को शुरू से ही अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । प्रथम , भारतीय अफसर इसे पसंद न करते थे । उनमें से अनेक इसे छोड़कर अंग्रेजों के साथ जा मिले । द्वितीय जापानी सरकार की नीति भी इसके प्रति स्पष्ट न थी । तृतीय फौजी ट्रेनिंग का इंतजाम न था । इससे असंतुष्ट होकर भारतीय नौजवानों ने युवक संघ ( Youth Leage ) बनाया । मोहन सिंह जानते थे कि जापानी शासक आजाद हिन्दी फौज को अपना हथकंडा बनाए रखना चाहते है । वह यह भी जानते थे कि उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है । अतः उन्होंने एक मुहरबन्द पत्र भारतीय अफसरों के नाम रख दिया था । यदि उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता तो आजाद हिन्द फौज भंग कर दी जाए और सारे दस्तावेज नष्ट कर दिए जाए । उनकी गिरफ्तारी के बाद यही हुआ । आजाद हिन्द फौज भंग कर दी गई ।
आजाद हिंद फौज में पहले गाँधीजी , आजाद एवं नेहरू दस्ते बनाए गए । इन तीनों के चुने सैनिकों को लेकर सितंबर , 1943 में मलाया के ताहपिंग में पहली छापामर रेजीमेंट बनाई गई जिसका नाम सुभाष ब्रिगेड रखा गया । इसका मुख्य हिस्सा जनवरी , 1944 में रंगून पहुँचा । 4 जनवरी , 1944 को सुभाष जापानी हवाई जहाज से रंगून पहुँचे और वहाँ अपना सदर दफ्तर कायम किया । इसके बाद सुभाष ब्रिगेड युद्ध - संचालन की दृष्टि से बर्मा स्थित जापानी सेनापति के अधीन कर दी गई । सुभाष ब्रिगेड की दूसरी और तीसरी बटालियन रंगून से क्रमश : 4 और 5 फरवरी , 1944 को रवाना हुई और मौडले होकर कलेवा पहुँची । यहाँ अंग्रेजों की छापामार सेना बहुत सक्रिय थी । आजाद हिन्द फौज से उनपर धावे बोलकर उन्हें कई बार पराजित किया । आजाद हिन्द फौज इस अपार सफलता से उत्साहित होकर ब्रह्मपुत्र नदी पार कर बंगाल में घुस गई लेकिन इसी बीच आजाद हिंद फौज की सेना मार्च 1944 में कोहिमा पहुँच गई । कोहिमा पर तिरंगा झंडा फहरा दिया गया । कोहिमा में जापानी सेना की हालत खराब होने लगी । इम्फाल पर जापानी कब्जा न कर सके । दीमापुर और कोहिमा की ओर से अंग्रेजों का जबर्दस्त हमला शुरू हुआ । आजाद हिन्द फौज को पीछे हटकर चिन्दविन नदी के पूरब चले जाना पड़ा । इस तरह सुभाष बिग्रेड का भारत मुक्ति अभियान समाप्त हो गया ।
आजाद हिन्दी फौज का यह अभियान भारत के राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन का एक बहुत ही शानदार अध्याय है । भारतीय उसके सैनिकों की वीरता की सराहना करते हैं और श्रद्धा के साथ स्मरण करते हैं । उनका अनुपम त्याग , शौर्य एवं बलिदान भारतीयों को अपने देश की स्वाधीनता की रक्षा की प्रेरणा देता रहेगा ।
21 अक्टूबर , 1943 को सिंगापुर की विशाल जनसभा में सुभाष ने स्थायी सरकार को स्थापना की घोषणा की । 23 अक्टूबर , 1943 को स्थायी सरकार की ओर से बोस ने ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की । 31 दिसंबर , 1943 को सुभाष अंडमान - निकोबार पहुँचे और दोनों टापुओं का प्रशान स्थाई सरकार के हाथ से ले लिया । लेकिन , सहसा जापान के पराजित होने के कारण आजाद हिन्द फौज तितर - बितर हो गई और उसके अफसरों को गिरफ्तार कर लिया गया । उसी समय वायुयान दुर्घटना में नेताजी का निधन हो गया ।
इस प्रकार , नेताजी एक वीर और साहसी पुरुष थे । उन्हें गाँधीजी के सत्य , अहिंसा और सत्याग्रह आंदोलन में विश्वास नहीं था । वे जर्मनी के चांसलर बिस्मार्क की तरह रक्त - शस्त्र ( Policy of Iron and Blood ) के समर्थक थे और इसी के द्वारा भारत की आजादी हासिल करना चाहते थे । उन्होंने आजाद हिन्दी फौज का पुनर्गठन कर अपार साहस और उत्साह का परिचय दिया । उन्होंने न केवल भारत , बल्कि पूर्वी एशिया के समस्त भारतीयों में एक नवीन स्फूर्ति का संचार किया । वस्तुतः उनका जीवन इतिहास अति आकर्षक है तथा वह गुत्थियों से उलझा हुआ है । बचपन से ही झंझावतों से भरा हुआ है । वह रहस्यवाद और वास्तविकता तथा धार्मिक भावना और व्यावहारिकता का अद्भुत सम्मिश्रण है । वे देश सेवा को अपना परम कर्तव्य समझते थे । देशबंधु चितरंजन दास के विचारों से वे काफी प्रभावित हुए ।