भारतीय निर्वाचन आयोग के संगठन और कार्यों - Election Commission of India

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Q. भारतीय निर्वाचन आयोग के संगठन और कार्यों का वर्णन करें। (Describe the organization and functions of the Election Commission of India in Hindi.)

Ans. भारत एक लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली वाला देश है जहाँ केन्द्र प्रदेश एवं स्थानीय स्तर पर आये दिन चुनाव होते रहते हैं। इन चुनावों के माध्यम से जनता अपने शासकों का चयन करती है, जनता अपने शासकों पर नियंत्रण रखती है और सरकार को वैधता प्रदान करती है । नागरिक मताधिकार के माध्यम से ऐसी सरकार को बदल सकती है जो उनकी इच्छाओं का सम्मान नहीं करती। वस्तुतः भारत जैसे देश में निर्वाचन अप्रत्यक्ष रूप से जनमत की अभिव्यक्ति है ।


भारत के संविधान निर्माता चुनावों के महत्त्व से परिचित थे और इसलिए भारतीय संविधान में उन्होंने एक ऐसे संवैधानिक आयोग की स्थापना की है जिसका प्रमुख कार्य सम्पूर्ण देश में राष्ट्रपति उपराष्ट्रपति, लोकसभा, राज्यसभा के सदस्य एवं राज्य विधानमंडल के सदस्यों का निर्वाचन संपन्न कराना है। इस संवैधानिक आयोग को निर्वाचन आयोग के नाम से जाना जाता है। जहाँ विश्व के अधिकांश शासन विधानों में निर्वाचन को अपेक्षाकृत कम महत्त्वपूर्ण विषय समझकर उसे व्यवस्थापिका की इच्छा पर छोड़ दिया गया है वहाँ भारतीय संविधान निर्माताओं ने निर्वाचन संबंधी संपूर्ण व्यवस्था के संचालन का प्रावधान संविधान के अंतर्गत ही कर दिया है। निर्वाचन तंत्र के महत्व पर प्रकाश डालते हुए संविधान निर्मात्री सभा में हृदयनाथ कुंजरू ने कहा था, “ अगर निर्वाचन तंत्र दोषपूर्ण है या निष्पक्ष नहीं है या गैर-ईमानदार लोगों द्वारा संचालित होता है तो लोकतंत्र उद्भव काल में ही डगमगा जायेगा ।" "जल्दी-जल्दी चुनाव होने और राजनीतिक दलों में विभाजन होने से निर्वाचन आयोग एक ऐसे सत्ता केन्द्र के तौर पर उभर रहा है, जो चुनाव के पहले राजनीतिक दलों के आचरण और सरकार के कामकाज पर कड़ी नजर रखता है।"

स्वतंत्र निर्वाचन तंत्र के महत्त्व को स्वीकार करते हुए भारतीय संविधान के एक पृथक अध्याय अनुच्छेद 324 से 329 में निर्वाचन तंत्र से संबंधित संपूर्ण व्यवस्था की गई है।

संगठन - सन् 1951 में पहली बार संविधान के अंतर्गत निर्वाचन आयोग का गठन किया गया और तब से निर्वाचन आयोग 'एक सदस्यीय आयोग' के रूप में कार्य करता रहा। 1952 में आम चुनावों के संचालन हेतु दो प्रादेशिक आयुक्तों की नियुक्ति की गई। प्रादेशिक निर्वाचन आयुक्तों की व्यवस्था को लाभदायक नहीं समझा गया और द्वितीय आम चुनाव के समय इसे निरस्त कर दिया गया । सन्ब 1956 में प्रादेशिक निर्वाचन आयुक्तों के स्थान पर उपनिर्वाचन आयुक्त के पद सृजित किये गये । विभिन्न चुनावों के स्थान पर उपनिर्वाचन आयुक्त के पद का सृजन किया जाता 1 निर्वाचन आयुक्त है। वैसे यह संविधिक पद नहीं है, इसका उल्लेख जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम में किया गया है 1952, 1956 और 1967 के मध्यावधि चुनावों के समय मुख्य के लिए केवल एक ही उपनिर्वाचन आयुक्त था । को सहायता देने

इस प्रकार मुख्य निर्वाचन आयुक्त को सहायता देने के लिए उपनिर्वाचन आयुक्त, सचिव, अपर सचिव, शोध अधिकारी आदि पद उपलब्ध कराये गये हैं ।

सन् 1966 में निर्वाचन संबंधी विधि में परिवर्तन करके यह प्रावधान किया गया कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त में सन्निहित अधिकारों का प्रयोग उप-निर्वाचन आयुक्त एवं आयोग के सचिव भी कर सकते हैं। इस प्रकार निर्वाचन आयुक्त की शक्तियों का हस्तांतरण हो सकता है किन्तु आज भी संविधान के अनुसार निर्वाचन संबंधी समस्त शक्तियाँ एक मुख्य निर्वाचन आयुक्त में ही समाविष्ट हैं ।

16 अक्टूबर 1989 के तत्कालीन राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन ने निर्वाचन आयोग को व्यापक रूप देने के लिए दो निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति की। ये अधिकारी श्री एस.एस. धनोवा और श्री वी. एस. सैगल थे। श्री एस.एस. घनोवा और श्री वी.एस. सैगल की नियुक्ति निर्वाचन आयुक्त की सहायता के लिए की गई थी। संविधान के अनु. 324 में यह प्रावधान है कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त की सहायता के लिए आयुक्तों की नियुक्ति की जा सकती है। श्री घनोवा और श्री सैगल क्रमशः अवकाश प्राप्त आई.ए.एस. और आई.पी.एस. अधिकारी थे।

2 जनवरी 1990 को राष्ट्रपति ने चुनाव आयुक्तों के रूप में श्री घनोवा और श्री सैगल की नियुक्ति रद्द कर दी जिसके साथ ही बहु-सदस्यीय आयोग फिर-सदस्यीय हो गया। दोनों चुनाव आयुक्तों की संसदीय चुनाव की पूर्व संध्या पर नियुक्ति की राष्ट्रीय मोर्चे के घटक तथा अन्य विपक्षी दलों ने आलोचना की थी। सत्ता संभालने के बाद प्रधानमंत्री श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपने पहले संवाददाता सम्मेलन में कहा था कि जिन परिस्थितियों में दोनों चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति हुई सरकार उसकी समीक्षा करेगी ।

चुनाव आयोग के कार्य (Functions of Election Commission) - चुनावों से संबंधित समस्त व्यवस्था करना चुनाव आयोग के कार्य हैं। इस संबंध में प्रमुख रूप से उसके निम्नलिखित कार्यों का उल्लेख किया जा सकता है-

1. चुनाव तिथियों का निर्धारण (To decide Election Schedule ) - 28 अक्टूबर, 2002 को गुजरात में चुनाव की तिथियों को लेकर राज्य सरकार और चुनाव आयोग के बीच उठे विवाद के संबंध में राष्ट्रपति द्वारा माँगी गई राय पर सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में गुजरात में चुनावों के मामले में चुनाव आयोग को सही ठहराया तथा कहा कि संविधान के अनु० 324 के तहत चुनाव कराने संबंधी फैसला करने का चुनाव आयोग का अधिकार संविधान के किसी अन्य अनु० से बंधा नहीं है। संविधान पीठ के अनुसार चुनाव कराना आयोग का विशेषाधिकार है। चुनाव आयोग ही चुनाव तिथियों का निर्धारण करने वाली सर्वोच्च संस्था है। न्यायालय के अनुसार सार्वजनिक अशांति चुनावों को टालने की वजह नहीं बननी चाहिए, जैसा कि चुनाव आयोग ने गुजरात में किया ।

2. चुनाव क्षेत्रों का परिसीमन या सीमांकन (Delimitation of Constituencies) - चुनाव आयोग का सर्वप्रथम कार्य चुनाव क्षेत्रों का सीमांकन होता है। प्रथम आम चुनाव में निर्वाचन क्षेत्रों का सीमांकन 'जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा जारी किये गये आदेश के आधार पर किया गया था, लेकिन यह व्यवस्था नहीं पायी गयी, अतः संसद ने 'परिसीमन अधिनियम आयोग 1952 पारित किया। इस अधिनियम में यह प्रावधान है कि 10 वर्ष बाद होने वाली प्रत्येक जनगणना के उपरांत निर्वाचन क्षेत्रों का सीमांकन किया जाना चाहिए। मुख्य चुनाव आयुक्त इस परिसीमन आयोग के अध्यक्ष होते हैं और उनके अतिरिक्त दो सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश होते हैं। आयोग की सहायता के लिए प्रत्येक राज्य से 2 से लेकर 7 तक सहायक सदस्यों का प्रावधान है। ये सहायक सदस्य संबद्ध राज्यों के लोकसभा अथवा राज्य विधानसभा के लिए निर्वाचित सदस्यों में से चुने जाते हैं। जनता के द्वारा व्यक्तिगत अथवा संगठित रूप से आयोग के समक्ष सुझाव या आपत्तियाँ प्रस्तुत की जा सकती हैं जिन पर खुली बैठकों में विचार आवश्यक माना गया है। इसके उपरांत ही चुनाव आयोग 'सीमांकन आदेश' की घोषणा करता है जो अंतिम होता है तथा जिसके विरुद्ध किसी भी न्यायालय में अपील नहीं की जा सकती है। परिसीमन आयोग की यह व्यवस्था 'गैरीमेण्डरिंग' जैसी बुराइयों के सीमित करने के लिए की गयी है।


3. मतदान सूचियाँ तैयार करना (To Prepare Electral Rools) - चुनाव आयोग के द्वारा लोकसभा या विधानसभा के प्रत्येक चुनाव से पूर्व या मध्यावधि चुनाव से पूर्व मतदाता सूचियाँ तैयार करवायी जाती है और इस कार्य के संपन्न होने पर ही चुनाव कराये जाते हैं। मतदाता सूची तैयार कराने का कार्य इस उद्देश्य से किया जाता है कि कोई भी ऐसे व्यक्ति चुनाव से वंचित न रहे जो मताधिकार की योग्यता रखता हो।.

4. राजनीतिक दलों का पंजीकरण (To Register the political parties) - जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 29 ए में निर्वाचन आयोग द्वारा राजनीतिक दलों के पंजीकरण की व्यवस्था की गई है। निर्वाचन आयोग द्वारा पंजीकृत दलों को चुनाव में प्रदर्शन देखते हुए कुछ शर्तों पर राष्ट्रीय अथवा राज्य-स्तर के दल के रूप में मान्यता प्रदान की जा सकती है। किसी भी राजनीतिक दल के राज्य स्तर के दल की मान्यता तभी मिल सकती है जब या तो 

(a) (i) लोकसभा या संबंधित राज्य के विधानमंडल में पिछले चुनाव के दौरान खड़े किए गए उसके उम्मीदवारों ने आम चुनाव के दौरान संबंधित राज्य में कुल वैध मतों में से कम से कम छह प्रतिशत मत प्राप्त किये हों और (ii) इसके अतिरिक्त विधानसभा के पिछले आम चुनाव के दौरान उसके कम से कम दो सदस्य विधानसभा के लिए चुने गये हों ।

(b) राज्य की विधानसभा की कुल सीटों की संख्या में उसे कम से कम 3% सीटें प्राप्त हुई हों (कोई भी भिन्न आधा से अधिक पर एक माना जायेगा) अथवा उस आम चुनाव में विधानसभा की कम से कम तीन सीटें, जो भी अधिक हों, उसे मिली हो ।

किसी भी राजनीतिक दल का राष्ट्रीय स्तर के दल की मान्यता तभी मिल सकती है जब  - 

(a) (i) पिछले आम चुनावों में लोकसभा या राज्यों के विधानसभा के लिए चार या उससे अधिक राज्यों में खड़े किए गए उसके उम्मीदवारों ने आम चुनाव के दौरान संबंधित राज्यों में पड़े कुल वैध मतों में से कम से कम 6% मत हासिल किये हों और (ii) इसके अतिरिक्त उपरोक्त आम चुनाव में किसी भी राज्य या राज्यों से कम से कम चार उम्मीदवार लोकसभा के लिए चुने गये हों अथवा 

(b) (i) पिछले आम चुनावों में लोकसभा के लिए चुने गए उम्मीदवारों की संख्या, भारत के कुल निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या का कम से कम दो प्रतिशत हो, कोई भी भिन्न आधा से अधिक होने पर एक माना जायेगा तथा (ii) उपरोक्त उम्मीदवार उस सदन में कम से कम तीन राज्यों से चुनकर आने चाहिए । राष्ट्रीय दल को एक विशेष चुनाव चिह्न आवंटित होता है जिसे वह पूरे भारत में इस्तेमाल कर सकता है। राज्य स्तर के दलों के लिए उनके राज्य अथवा राज्यों में चुनाव चिह्न आरक्षित होता है, जिनमें उन्हें मान्यता प्राप्त होती हैं, जिनके लिए वे आरक्षित होते हैं। वर्ष 1999 के आम चुनाव के समय आयोग द्वारा मान्यता प्राप्त 6 राष्ट्रीय दल और 48 राज्य स्तर के दल थे।

5. अर्द्ध-न्यायिक कार्य (Quasi- Judicial Functions) - संविधान के द्वारा आयोग को कुछ अर्द्ध-न्यायिक कार्य भी सौंपे गये हैं जिनमें दो उल्लेखनीय हैं - (1) अनु. 103 के अंतर्गत राष्ट्रपति संसद सदस्य के अयोग्यताओं के संबंध में परामर्श कर सकता है तथा अनु. 192 के अंतर्गत विधानमंडलों के सदस्यों के संबंध में यह अधिकार राज्यों के राज्यपालों को दिया गया है, लेकिन संविधान अथवा जन प्रतिनिधित्व अधिनियम में कार्य को करने की कोई निश्चित प्रक्रिया तय नहीं की गयी है और इस कार्य को करने में आयोग ने कठिनाइयाँ अनुभव की है।

6. अन्य कार्य (Others Functions) - आयोग को उपर्युक्त के अतिरिक्त कुछ अन्य कार्य भी मिले हैं, जो इस प्रकार हैं- (1) राजनीतिक दलों के लिए आचार संहिता तैयार करना । (2) राजनीतिक दलों को आकाशवाणी पर चुनाव प्रचार की सुविधाएँ दिलवाना। (3) उम्मीदवारों के द्वारा किये जाने वाले कुछ व्यय निश्चित करना। (4) मतदाता को राजनीतिक प्रशिक्षण देना । (5) चुनाव याचिकाओं आदि के संबंध में सरकार को आवश्यक परामर्श देना। इन सबके अतिरिक्त आयोग से यह अपेक्षा की जाती है कि वह समय-समय पर अपने कार्यों के संबंध में प्रतिवेदन देता रहेगा और चुनाव प्रक्रिया में सुधार के लिए सुझाव देता रहेगा ।

निर्वाचन प्रक्रिया का आरंभ इस संबंध में राष्ट्रपति द्वारा जारी की गयी अधिसूचना से होता है। यह अधिसूचना 'जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की 14वीं धारा' अंतर्गत जारी की जाती है तथा उसे वर्तमान लोकसभा की अवधि की समाप्ति या मध्यावधि चुनाव के समय जारी की जाती है। इसके उपरांत चुनाव आयोग मतदान की घोषणा करता है, जिसे निर्वाचन प्रक्रिया का दूसरा चरण कहा जाता है। इस घोषणा में नामजदगी, पतों की जाँच की तिथि, चुनाव संघर्ष से नाम वापस लेने की तिथि इत्यादि का उल्लेख होता है ।


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